Drop Down MenusCSS Drop Down MenuPure CSS Dropdown Menu

Tuesday 28 January 2014

बलि का बकरा हँस पड़ा


प्राचीन काल में काशी राज्य पर ब्रह्मदत्त नाम के एक राजा राज्य करते थे। उसी समय उनके समय में एक बार पहाड़ी पर बोधिसत्व ने देवदार वृक्ष के रूप में जन्म लिया। ये आस-पास के क्षेत्रों में रहनेवालों के आचार-विचार पर ध्यान रखते और उनकी परख करते। पहाड़ी की घाटी में एक गुरुकुल था। एक विद्वान पंडित वहाँ के आचार्य थे, जो अपने कुछ शिष्यों के साथ गुरुकुल में रहते थे।
एक बार अनजान में आचार्य से कोई पाप हो गया। उस पाप से मुक्त होने के लिए उन्होंने एक व्रत रखने का निश्चय किया। उस व्रत के नियम के अनुसार उन्हें एक बकरे की बलि देनी थी। इसलिए आचार्य ने किसी धनी व्यक्ति से एक बकरा माँगा।
बकरा मिल जाने पर आचार्य ने अपने दो शिष्यों को बुला कर कहा, ‘‘जाओ, इसे नदी में नहला कर और इसके गले में फूल-माला डाल कर ले आओ।'' इनके शिष्य बकरे को नदी के पास ले गये। उस समय आकाश में काले-काले बादल घुमड़ रहे थे। लगता था, जोरों से आँधी और वर्षा आने वाली है। एक शिष्य ने बकरे को नदी में नहलाया और दूसरे शिष्य ने फूल चुनकर माला तैयार की। फिर दोनों बकरे के गले में माला डालने लगे।
तभी अचानक बकरा हँस पड़ा। शिष्यों को लगा जैसे हँसी किसी मनुष्य की हो। किन्तु इधर-उधर देखने पर भी वहाँ बकरे के अलावा और कोई नहीं नज़र आया। जब उन्हें विश्वास हो गया कि हो न हो, अभी मनुष्य की तरह बकरा ही हँसा है, तो वे दोनों बहुत डर गये।
वे दोनों शिष्य डरकर भागने ही वाले थे कि तभी उन दोनों ने देखा कि बकरे की आँखों से आँसू बह रहे हैं। शिष्यों को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ, लेकिन साथ ही, उनकी हिम्मत भी बँधी। वे तुरंत बकरे को अपने आचार्य के पास ले गये।

शिष्यों ने आचार्य के कान में कहा, ‘‘गुरुदेव! ऐसा लगता है कि इस बकरे के अन्दर भूत प्रवेश कर गया है। नदी के पास यह मनुष्य की तरह हँसा और फिर रोने लगा। ऐसा पशु क्या बलि के योग्य हो सकता है? अच्छा हो यदि हमलोग बलि के लिए कोई और बकरा तलाश करें।''
इस पर आचार्य कुछ कहने ही जा रहे थे कि तभी बकरा मनुष्य की आवाज़ में बोला, ‘‘मुझे बलि का बकरा बनाने में तुम लोगों को क्या आपत्ति है? तुम सब ऐसा करने से डर क्यों रहे हो?'' मनुष्य की आवाज़ में बकरे को बोलते देख कर आचार्य और शिष्य आश्चर्य और भय से मूर्छित-से होने लगे। बकरा इस पर उन्हें धीरज बंधाता हुआ बोला, ‘‘तुम सब डरो मत! हमसे तुम लोगों की कोई हानि नहीं होगी।''
आचार्य अपने को संभालते हुए बोले, ‘‘एक बकरे का मनुष्य की तरह बातें करना कितने आश्चर्य की बात है!'' ‘‘इसमें आश्चर्य की क्या बात है? मैं भी किसी जन्म में एक विद्वान ब्राह्मण था। मनुष्य की बुद्धि बनी रहने के कारण मैं बकरा होकर भी मनुष्यों की तरह बोल लेता हूँ। इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है।'' बकरे ने समझाया।
‘‘तो फिर बकरे का नीच जन्म तुम्हें कैसे प्राप्त हुआ?'' आचार्य ने उत्सुकता प्रकट की। यह सुनते ही बकरा उदास हो गया। फिर बोला,‘‘ब्राह्मण और पंडित होते हुए भी पिछले जन्म में मुझसे कोई पाप-कर्म हो गया। उन पापों के फल से बचने के लिए मैंने कई व्रतों और नियमों का पालन किया। इतना ही नहीं, एक बकरे की बलि भी दी! लेकिन, फिर भी विधाता को धोखा न दे सका। बकरे की एक बार बलि के बदले मुझे पाँच सौ बार बकरे के रूप में जन्म लेना पड़ा।'' ‘‘पाँच सौ बार बकरे का जन्म...?'' आचार्य ने लम्बी साँस लेकर कहा।
‘‘जी हाँ! पाँच सौ बार। चार सौ निन्यानवे बार मैं बलि का बकरा बन चुका हूँ। आज मेरी आखिरी बलि पड़ने जा रही है। इसके बाद मैं बकरे के जन्म से मुक्त हो जाऊँगा। बलि के लिए नदी में स्नान करते समय अचानक मुझे पूर्व जन्मों की याद हो आयी। इसीलिए मैं हँस पड़ा!''

आचार्य को बकरे की बात पर विश्वास हो रहा था, इसलिए वे उसकी बात को ध्यान से सुन रहे थे। ‘‘लेकिन तुम रोये क्यों?'' आचार्य को रोने का कारण अभी तक समझ में नहीं आया था, इसलिए उन्होंने यह प्रश्न किया। बकरा थोड़ी देर के लिए चुप हो गया।
फिर बोला, ‘‘जिस पाप के कारण मुझे पाँच सौ बार बकरे का जीवन जीना पड़ा, वही पाप तुम करने जा रहे हो। जिस प्रकार मुझे इतने दिनों तक पशु-जीवन का दुख भोगना पड़ा, उसी प्रकार तुम्हें भी वही दुख झेलना पड़ेगा। यह सब सोच कर मेरी आँखों में आँसू आ गये।''
आचार्य यह सब सुनकर सोच में पड़ गये। शिष्य आचार्य और बकरे के बीच हो रही ज्ञान-चर्चा पर विस्मित हो रहे थे। साथ ही, बकरे की बलि देने पर उनके गुरु को जो पाप भोगना पड़ेगा, इसकी कल्पना कर वे रोने-बिलखने लगे।
आचार्य सोच रहे थे, ‘‘शास्त्रों का ज्ञान होने पर भी मनुष्य मूर्ख क्यों बना रहता है? एक पाप को मिटाने के लिए दूसरा पाप करता है और एक दुख से बचने की कोशिश में नये-नये असंख्य दुखों के जाल में उलझता जाता है। ‘‘मैं इस निर्दोष प्राणी के प्राण लेकर अब और पाप बढ़ाना नहीं चाहता।''
आचार्य ने यह निश्चय कर लिया कि अब वह बकरे की बलि नहीं देंगे। उन्हें विश्वास हो गया कि इससे पाप कटता नहीं, बढ़ता है। बकरे से बोले, ‘‘डरो नहीं। मैं अब तुम्हें बलि नहीं दूँगा।''

‘‘मैं मृत्यु से नहीं डरता, बल्कि मैं बड़ी आतुरता से उसकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। वह जितनी जल्दी आयेगी, उतनी ही जल्दी मैं इस पशु जीवन से मुक्त हो जाऊँगा।'' बकरे ने कहा।
‘‘यह तो ठीक है, लेकिन मैं क्यों तुम्हारी हत्या का पाप लूँ? यह तो अभी तुमने ही कहा है कि बलि देने से पाप कटता नहीं, बल्कि और बढ़ता है। अतः अब तुम चाहे कितना ही क्यों न गिड़गिड़ाओ, मैं तुम्हारी बलि नहीं दे सकता!'' आचार्य ने दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया।
इस पर बकरे ने फिर कहा, ‘‘आज मेरी मृत्यु की घड़ी आ गयी है। यदि तुम्हारे हाथों नहीं हुई तो किसी और के हाथों होगी। लेकिन आज होगी निश्चित!'' ‘‘लेकिन ऐसा कदापि नहीं होना चाहिए। मेरे द्वारा तुम्हारी बलि पड़ने पर मैं ही तुम्हारी मृत्यु का जिम्मेदार होता। इसीलिए तुम्हारी रक्षा भी मेरी ही जिम्मेदारी होगी। मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा । मेरे जीते-जी तुम्हारे प्राणों को कोई हानि नहीं पहुँचा सकता!''
ऐसा कहकर आचार्य ने बकरे को रक्षा का आश्र्वासन दिया। इसके बाद बकरे को मुक्त कर दिया गया। आचार्य और उनके शिष्य बकरे की रक्षा के लिए उसके पीछे-पीछे चलने लगे।
कुछ देर तक बकरा फलों के बाग में घूमता रहा। फिर इधर-उधर भटकता हुआ पहाड़ी की ओर चल पड़ा। धीरे-धीरे वह पहाड़ी की चोटी पर चढ़ गया। तभी आसमान के काले बादल घोर गर्जन करने लगे और बिजली चमकने लगी। अचानक भयंकर कड़क के साथ चोटी पर वज्रपात हुआ और बकरा उसी बिजली में जल कर राख हो गया। आचार्य और उनके शिष्य दूर से यह सब देखते रहे।
पहाड़ी पर स्थित देवदार के रूप में बोधिसत्व को इस घटना से बड़ा सन्तोष मिला।
एक तो प्राकृतिक मृत्यु से बकरे का पशु-जीवन समाप्त हुआ। दूसरे, पापों से मुक्त होने के लिए और पाप करते जाना कितनी बड़ी मूर्खता है, यह ज्ञान कुछ लोगों के हृदय में उदय हुआ। यही बोधिसत्व के सन्तोष का कारण था।

No comments:

Post a Comment